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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


वेश्या मुंशी प्रेम चंद

सिंगारसिंह को जब से दयाकृष्ण के इस प्रेमाभिनय की सूचना मिली है, वह उसके खून का प्यासा हो गया है।र् ईर्ष्याग्नि से फुँका जा रहा है। उसने दयाकृष्ण के पीछे कई शोहदे लगा रखे हैं कि वे उसे जहाँ पायें, उसका काम तमाम कर दें। वह खुद पिस्तौल लिये उसकी टोह में रहता है। दयाकृष्ण इस खतरे को समझता है, जानता है; अपने नियत समय पर माधुरी के पास बिला नागा आ जाता है। मालूम होता है, उसे अपनी जान का कुछ भी मोह नहीं है। शोहदे उसे देखकर क्यों कतरा जाते हैं, मौका पाकर भी क्यों उस पर वार नहीं करते, इसका रहस्य वह नहीं समझता।
एक दिन माधुरी ने उससे कहा, क़ृष्णजी, तुम यहाँ न आया करो। तुम्हें तो पता नहीं है, पर यहाँ तुम्हारे बीसों दुश्मन हैं। मैं डरती हूँ कि किसी दिन कोई बात न हो जाय।
शिशिर की तुषार-मण्डित सन्धया थी। माधुरी एक काश्मीरी शाल ओढ़े अँगीठी के सामने बैठी हुई थी। कमरे में बिजली का रजत प्रकाश फैला हुआ
था। दयाकृष्ण ने देखा, माधुरी की आँखें सजल हो गई हैं और वह मुँह फेरकर उन्हें दयाकृष्ण से छिपाने की चेष्टा कर रही है। प्रदर्शन और सुखभोग करनेवाली रमणी क्यों इतना संकोच कर रही है, यह उसका अनाड़ी मन न समझ सका। हाँ, माधुरी के गोरे, प्रसन्न, संकोचहीन मुख पर लज्जामिश्रित मधुरिमा की ऐसी छटा उसने कभी न देखी थी। आज उसने उस मुख पर कुलवधू की भीरु आकांक्षा और दृढ़ वात्सल्य देखा और उसके अभिनय में सत्य का उदय हो गया।
उसने स्थिर भाव से जवाब दिया, मैं तो किसी की बुराई नहीं करता, मुझसे किसी को क्यों वैर होने लगा। मैं यहाँ किसी का बाधक नहीं, किसी का विरोधी नहीं। दाता के द्वार पर सभी भिक्षुक जाते हैं। अपना-अपना भाग्य है, किसी को एक चुटकी मिलती है, किसी को पूरा थाल। कोई क्यों किसी से जले ? अगर किसी पर तुम्हारी विशेष कृपा है, तो मैं उसे भाग्यशाली समझकर उसका आदर करूँगा। जलूँ क्यों ?
माधुरी ने स्नेह-कातर स्वर में कहा, ज़ी नहीं, आप कल से न आया कीजिए।
दयाकृष्ण मुस्कराकर बोला, तुम मुझे यहाँ आने से नहीं रोक सकतीं।
भिक्षुक को तुम दुत्कार सकती हो, द्वार पर आने से नहीं रोक सकतीं।
माधुरी स्नेह की आँखों से उसे देखने लगी, फिर बोली, क्या सभी आदमी तुम्हीं जैसे निष्कपट हैं ?
'तो फिर मैं क्या करूँ ?'
'यहाँ न आया करो।'
'यह मेरे बस की बात नहीं।'
माधुरी एक क्षण तक विचार करके बोली, एक बात कहूँ, मानोगे ?
चलो, हम-तुम किसी दूसरे नगर की राह लें।
'केवल इसीलिए कि कुछ लोग मुझसे खार खाते हैं ?'
'खार नहीं खाते, तुम्हारी जान के ग्राहक हैं।'
दयाकृष्ण उसी अविचलित भाव से बोला, ज़िस दिन प्रेम का यह पुरस्कार मिलेगा, वह मेरे जीवन का नया दिन होगा, माधुरी ! इससे अच्छी मृत्यु और क्या हो सकती है ? तब मैं तुमसे पृथक् न रहकर तुम्हारे मन में, तुम्हारी स्मृति में रहूँगा।

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